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अ॒ग्निर॑स्मि॒ जन्म॑ना जा॒तवे॑दा घृ॒तं मे॒ चक्षु॑र॒मृतं॑ मऽआ॒सन्। अ॒र्कस्त्रि॒धातू॒ रज॑सो वि॒मानोऽज॑स्रो घ॒र्मो ह॒विर॑स्मि॒ नाम॑ ॥६६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। अ॒स्मि॒। जन्म॑ना। जा॒तवे॑दा इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। घृ॒तम्। में॒। चक्षुः॑। अ॒मृत॑म्। मे॒। आ॒सन्। अ॒र्कः। त्रि॒धातु॒रिति॑ त्रि॒ऽधातुः॑। रज॑सः। वि॒मान॒ इति॑ वि॒ऽमानः॑। अज॑स्रः। घ॒र्मः। ह॒विः। अ॒स्मि॒। नाम॑ ॥६६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:66


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

यज्ञ से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (जन्मना) जन्म से (जातवेदाः) उत्पन्न हुए पदार्थों में विद्यमान (अग्निः) अग्नि के समान (अस्मि) हूँ, जैसे अग्नि का (घृतम्) घृतादि (चक्षुः) प्रकाशक है, वैसे (मे) मेरे लिये हो। जैसे अग्नि में अच्छे प्रकार संस्कार किया (हविः) हवन करने योग्य द्रव्य होमा हुआ (अमृतम्) सर्वरोगनाशक आनन्दप्रद होता है, वैसे (मे) मेरे (आसन्) मुख में प्राप्त हो। जैसे (त्रिधातुः) सत्त्व, रज और तमोगुण तत्त्व जिसमें हैं, उस (रजसः) लोक-लोकान्तर को (विमानः) विमान यान के समान धारण करता (अजस्रः) निरन्तर गमनशील (घर्मः) प्रकाश के समान यज्ञ, जिससे सुगन्ध का ग्रहण होता है, (अर्कः) जो सत्कार का साधन जिसका (नाम) प्रसिद्ध होना अच्छे प्रकार शोधा हुआ हवन करने योग्य पदार्थ है, वैसे मैं (अस्मि) हूँ ॥६६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अग्नि होम किये हुए पदार्थ को वायु में फैला कर दुर्गन्ध का निवारण, सुगन्ध की प्रकटता और रोगों को निर्मूल (नष्ट) करके सब प्राणियों को सुखी करता है, वैसे ही सब मनुष्यों को होना योग्य है ॥६६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

यज्ञेन किं जायत इत्याह ॥

अन्वय:

(अग्निः) पावक इव (अस्मि) (जन्मना) प्रादुर्भावेन (जातवेदाः) यो जातेषु विद्यते सः (घृतम्) आज्यम् (मे) मह्यम् (चक्षुः) दर्शकं प्रकाशकम् (अमृतम्) अमृतात्मकं भोज्यं वस्तु (मे) मम (आसन्) आस्ये (अर्कः) सर्वान् प्राणिनोऽर्चन्ति येन सः (त्रिधातुः) त्रयो धातवो यस्मिन् सः (रजसः) लोकसमूहस्य (विमानः) विमानयानमिव धर्त्ता (अजस्रः) अजस्रं गमनं विद्यते यस्य सः। अत्र अर्शऽआदिभ्योऽच् [अष्टा० ५.२.१२७] इत्यच् (घर्मः) जिघ्रति येन स प्रकाश इव यज्ञः (हविः) होतव्यं द्रव्यम् (अस्मि) (नाम) ख्यातिः ॥६६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - अहं जन्मना जातवेदा अग्निरिवास्मि, यथाऽग्नेर्घृतं चक्षुरस्ति, तथा मेऽस्तु। यथा पावकं संस्कृतं हविर्हुतं सदमृतं जायते, तथा म आसन् मुखेऽस्तु। यथा त्रिधातू रजसो विमानोऽजस्रो घर्मोऽर्को यस्य नाम संशोधितं हविश्चास्ति तथाऽहमस्मि ॥६६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाग्निर्हुतं हविर्वायौ प्रसार्य दुर्गन्धं निवार्य सुगन्धं प्रकटय्य रोगान् समूलघातं निहत्य सर्वान् प्राणिनः सुखयति, तथैव मनुष्यैर्भवितव्यम् ॥६६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. होमात टाकलेल्या पदार्थांना अग्नी वायूत पसरवितो व दुर्गंधाचे निवारण करून सुगंधाचा फैलाव व रोगांचे निर्मूलन करतो आणि सर्व प्राण्यांना सुखी करतो. तसे सर्व माणसांनी वागावे.